एक योद्धा |

लो खड़ा हूँ फिर लडूंगा, 
है धरा पर त्राण जब तक और तन में प्राण जब तक ।
करता रहूँगा परित्राण तब तक साधुता का ।
हा गिर पड़ा था चंद पल को ,
पर न थका था न थकुंगा ।
अंत साँसों तक लडूंगा ।
न झुक था था न झुकूँगा , आज मैं फिर से लडूंगा ।
आततायी है सबल धरा हो रही विकल ,
पर न हटूंगा लड़ मरूँगा ,
लो खड़ा हु फिर लडूंगा ।
है शपथ उन राम की धर परशु फिर से भिडूगा ,
आह्वान है शर चाप का,
दिव्य अग्नि ताप का,
न हटा था न हटूंगा ।
लो खड़ा हूँ फिर से लडूंगा ।
हर मनुज का का रूप ले ,
दनुजो का संहार को आज फिर रण में चलूँगा ।
लो खड़ा हूँ फिर लडूंगा ।
परवाह नही है घाव की ,
शोणित के अपवाह की ,
आज शर संधान करूंगा ।
लो खड़ा हूँ फिर से लडूंगा ।
अन्याय है जब तक धरा पर ,
न्याय को लेकर चलूँगा ,
दनुजता की हर बला को आज भस्मीभू करूंगा ।
लो खड़ा हूँ फिर लडूंगा ।
लो खड़ा हूँ फिर लडूंगा ।

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