हिन्दू वैयक्तिक विधि==========

परिचय -------------------
प्राचीन भारत में धर्म को इसोपासना से अधिक विधि का विषय माना जाता था आप किसी भी सम्प्रदाय के अनुयायी हो किन्तु आप पर एक समान विधि लागू होती थी । महर्षि याज्ञवल्क्य ने धर्म (विधि) के चार स्रोत बताये हैं ।
श्रुतिः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियात्मन: ।
सम्यक्संकल्पज: कामो धर्ममूलमिदं स्मृतं ।।

अर्थात श्रुति स्मृति सदाचार तथा प्रथाएं ( सम्यक संकल्प द्वारा उत्पन्न इच्छाएं) ।
आगे याज्ञवल्क्य ने पुनः ज्ञान के चौदह स्तम्भ बताये हैं -

पुराण-न्याय-मीमांसा धर्मशास्त्रांग मिश्रितः ।
वेदः स्थानानि विद्यानां धर्मस्य च चतुर्दशः ।।
अर्थात चार वेद, छः वेदांग, धर्मशास्त्र, न्याय, पुराण और मीमांसा ।
मैंने यहां पर इसलिए याज्ञवल्क्य स्मृति से ही उदाहरण देना इसलिए उचित समझा क्योंकि भारत में हिन्दू विधि पर मनुस्मृति की अपेक्षा याज्ञवल्क्य स्मृति का ही प्रभाव ज्यादा है या यूं कहें उसी से भारत में हिन्दू विधि संचालित होती है ।
भारत में हिन्दू विधि पर प्रथाओं (देशाचार, लोकाचार और कुलाचार) का अत्यधिक प्रभाव होने के कारण हिन्दू विधि को कई शाखाओं में बांटा गया है । दो शाखाएं प्रमुख हैं ।
प्रथम मिताक्षरा ;
द्वितीय दायभाग
प्रथमतः हम मिताक्षरा की बात करते है यह "याज्ञवल्क्य स्मृति" पर विज्ञानेश्वर द्वारा लिखा गया भाष्य (टीका)  ग्रन्थ हैं यह ग्रन्थ हिन्दू विधिशास्त्र में सुव्यवस्थित है  । बंगाल और उड़ीसा के कुछ क्षेत्रोंके अतिरिक्त समस्त भारत में इसी के आधार पर विवाह, विच्छेद , उत्तराधिकार और दत्तक आदि के नियम लागू होते है । किंतु इस शाखा की भी पांच उपशाखाएँ हैं --
1- बनारस शाखा या काशी शाखा;
2- मिथिला शाखा ;
3- द्रविण या मद्रास शाखा ;
4- महाराष्ट्र अथवा बम्बई शाखा; तथा
5- पंजाब शाखा  

इन सभी शाखाओं में विवाह पद्धतियों में और अन्य हिन्दू संस्थाओं के आचारों में थोड़ा बहुत अंतर है किंतु मूल सबका एक ही होने के कारण अंततः निर्णय समान होते हैं ।
दूसरी शाखा दायभाग इसकी रचना जीमूतवाहन ने की थी यह मनुस्मृति पर लिखा गया भाष्य है । बंगाल तथा उड़ीसा के कुछ भागों में लागू किया जाता है इसके उत्तराधिकार के नियम कठिन हैं थोड़े से इसमें पिता को मिताक्षरा की तुलना में अधिक अधिकार दिए गए हैं ।


विवाह  (अर्थ एवं दर्शन)--------------
दुनिया की लगभग सभी सभ्यताओं में विवाह को आवश्यक बताया गया है । सबके अपने अपने तर्क है चाहे वो यूरोप के गिलिन एंड गिलिन हों अथवा अरब के विद्वान हो सबने विवाह का एकमात्र उद्देश्य बताया पुत्रोत्पत्ति तथा उसका पालन पोषण । जबकि भारतीय संस्कृति में इसका उद्देश्य #अनोखा है ।
 महाभारत के आदिपर्व में कहा गया है वही व्यक्ति सुखी है जिसकी पत्नियां है , वही व्यक्ति पूर्ण है जो पत्नी तथा सन्तान से युक्त है ।
याज्ञवल्क्य के अनुसार "धर्म का आचरण व्यक्ति केवल पत्नी के साथ ही कर सकता है ।"
रामायण के अनुसार " पत्नी पति की आत्मा है।"
महाभारत - "पाणिग्रहणाधि सहत्वं धर्मेषु पुण्यफलेषु च ।" अर्थात विवाह से ही धर्मकार्यों का पुण्यफल प्राप्त होता है ।

यहां पर तीन ऋण (पितृ ऋण , देव ऋण तथा ऋषि ऋण) और चार पुरुषार्थ ( धर्म , अर्थ, काम और मोक्ष) के लिए विवाह को आवश्यक बताया गया है ।
हमारी संस्कृति कहती है व्यक्ति को "धर्म पूर्वक जीवन यापन करते हुए अर्थ का अर्जन करें तथा अपने समस्त काम (लौकिक कर्तव्य) पूरा करते हुए मोक्ष को प्राप्त हों । ये वही मोक्ष है जिसके लिए अत्यंत ज्ञानी ऋषि महर्षि पूरी जिंदगी तप करते हैं और अभिप्राप्त करने में असफल रहते हैं । जबकि उसे आम जन के लिए मात्र एक कार्य विवाह से ही सुगम बना दिया गया है ।
अब बात करते हैं काम (लौकिक कर्तव्यों) की हमारे मनीषियों ने इन ऋणों को पूर्ण करना ही हमारा लौकिक कर्तव्य माना है ।
प्रथम ऋण पितृ से मुक्ति हमें तब प्राप्त होती है जब हमें #धर्मज सन्तान (पुत्र अथवा पुत्री ) की प्राप्ति होती है । क्यों कि कहा गया है "पुंनाम नरकात् त्रायते इति पुत्रः" अर्थता पुत नामक नरक से तारने वाला ही पुत्र है किंतु इसका अर्थ कदापि नहीं कि पुत्री ऐसा नहीं कर सकती पुत्री मात्र पुत्र शब्द का स्त्रीलिंग है यह उसके लिए भी लागू होता है । बिना विवाह किए चाहे वो पुत्र हो अथवा पुत्री अपने पूर्वजों के लिए तर्पण नहीं कर सकता इसलिए पितृ ऋण से उऋण होने के लिए भी विवाह आवश्यक है ।
बिना विवाह किए कोई भी व्यक्ति यज्ञ नहीं कर सकता क्यों कि बिना विवाह किए कोई व्यक्ति पूर्ण नहीं होता है और अपूर्ण व्यक्ति यज्ञ नहीं कर सकता है ।  यदि व्यक्ति यज्ञ नहीं करता तो उसका "देव् ऋण" नहीं उऋण होता और वो नरकगामी होता है अंततः ।
व्यक्ति की संतानें जब शिक्षा प्राप्त करती हैं तो वह "ऋषि ऋण" से उऋण होता है । हमारे प्राचीन समाज में शिक्षा को अत्यधिक महत्व दिया गया था , कहा गया था
"माता शत्रु पिता बैरी ,येन बालो न पाठयती ।
सभा मध्यमं न शोभते हंस मध्ये बको यथा ।।"
अर्थात प्राचीन भारतीय संस्कृति के अनुसार विवाह तथा अपने लौकिक कर्तव्यों का पालन करना सन्यास लेकर इशोपासना से कहीं अधिक श्रेयस्कर माना गया था ।
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विवाह के प्रकार
ब्राह्मो दैवस्तथैवार्ष: प्रजापत्यस्तथासुरः ।
गन्धर्वो राक्षसश्चैव पैशचश्च्ष्टमो ।।

 जैसा कि सर्वविदित है हिन्दू विधि में विवाह की अनेक पद्धतियां प्रचलित हैं उन्हें मनु , याज्ञवल्क्य , कात्यायन और वात्स्यायन, नारद आदि ने मुख्यतः दो भागों में बांटा है ।
सबसे पहले हम बात करते है मान्य (ब्रह्म , दैव , आर्ष तथा प्राजापत्य ) विवाह पद्धतियों की ।
ब्राह्म विवाह -
आच्छाय चार्चयित्वा च श्रुतिशीलवते स्वयम ।
आहूय दानं कन्यायाः ब्राह्मो धर्म: प्रकीर्तितः ।।
अर्थात वेद पढ़े हुए सदाचारी वर को कन्या का पिता स्वयं बुलाकर, उसकी पूजा कर वस्त्रादि से अलंकृत कर कन्यादान करता है । आज के समय मे यह सर्वाधिक प्रचलित विवाह पद्धति है ।
दैव विवाह पद्धति -
यज्ञे तु वितते सम्यग्ऋत्विजे कर्मकुर्वते ।
अलंकृत्य सुतादानं दैव धर्म प्रचक्षते ।।
अर्थात यज्ञ में विधिपूर्वक कर्म करते हुए ऋत्विक(यज्ञ करवाने वाला) के लिए वस्त्रादि से सुसज्जित कन्या का दान करने को धर्मयुक्त दैव विवाह कहते हैं ।
आर्ष विवाह- आर्ष का अर्थ होता है ऋषियों का ।
एकं गोमिथुनं द्वै वा वरादादाय धर्मतः ।
कन्या प्रदानं दैव विधिदार्षो धर्म: स उच्यते ।।
अर्थात एक अथवा दो गाय -बैल की जोड़ी धर्म-कार्य करने के लिए वर से लेकर विधिपूर्वक कन्यादान करना आर्ष विवाह माना गया है ।
प्राजापत्य विवाह -
सह नौ च तां धर्ममितिवाचाsनुभाष्य च ।
कन्या प्रदानंभ्यरच्या प्रजापत्यो विधिः स्मृतः ।।
अर्थात कन्या के पिता द्वारा "तुम दोनों साथ साथ धर्म का पालन करो" ऐसा कहकर वस्त्र अलंकार आदि से उन्हें  पूजित कर कन्या-दान किया जाता है तो उसे प्राजापत्य विवाह कहते हैं । यह द्वितीय सर्वाधिक प्रचलित विवाह है ।
गन्धर्व विवाह –
 इसको निषिद्ध माना जाए अथवा मान्य इस विषय में स्मृतिकारों में मतभेद है । मनु जो जिनकी विधि अत्यंत कठोर है वे इसे निषिद्ध मनाते है किंतु वात्स्यायन और नारद इसे मान्य मानते हैं । दोनों के अलग अलग कारण हैं क्योंकि इस विवाह में मात्र वर और वधु की सहमति को ही स्थान दिया गया है किसी अन्य रीतिरिवाज अथवा कर्मकांड का कोई अर्थ नहीं है इसलिए "कम उम्र की कन्या के बहकाये जाने " का भी भय बना रहता है यहां ये प्रेम न होकर सिर्फ वासना और आकर्षण भी हो सकता है  । जबकि दूसरा पक्ष ये है कि यदि कन्या और वर समझदार हो तो उन्हें अपने जीवन सम्बन्धी फैसले लेने का अधिकार होना चाहिए ।
आज के दौर में मेरा मत है कि इसे मान्य बनाया जाना उचित है ।
अब बात करते हैं निषिद्ध पद्धतियों की ।
आसुर विवाह -
इस पद्धति में वर कन्या के पिता अथवा संरक्षक को कन्या के बदले धन देकर खरीद लेता है ।
राक्षस विवाह -
इस विवाह पद्धति में वर कन्या के पक्ष वालों की हत्या अथवा अंग विच्छेद करके गृह आदि तोड़कर कन्या का अपहरण करके बलपूर्वक विवाह करता है ।
पैशाच विवाह
इसमें सोई हुई , उन्मत्त, विकृतचित्त अथवा नशीला पदार्थ देकर कन्या को मत्त करके उसके साथ मैथुन करके विवाह किया जाता है ।
सर हेनरी मेन के कहा है कि "हिन्दू विधि ने राक्षस, पैशाच तथा आसुर आदि विवाह पद्धतियों के माध्यम से अपहरण, बलात्कार आदि अपराधों को मान्यता दी है ।"
किन्तु हेनरी मेन ये समझना नहीं चाहते कि निषिद्ध का अर्थ क्या होता है । हिन्दू विधि में ये पद्धतियां निषिद्ध करार दी गयी हैं अर्थात इन्हें करने पर व्यक्ति दण्ड का भागी होता है । अर्थात कन्या की खरीद , अपहरण अथवा बलात्कार ये चीजें हिन्दू विधि में दण्डनीय हैं तथा ऐसा करने के उपरांत यदि व्यक्ति उसी कन्या से विवाह कर लेता है तो भी वह विवाह कन्या द्वारा शून्य किया जा सकता है तथा ऐसा करने वाले को दण्ड दिया जाता है ।
किन्तु यदि कहीं ऐसी परम्परा है तो वहां यह विधि लागू नहीं होगी ।
विवाह  (प्रक्रिया)-------------
बात करते हैं हिन्दू विवाह में अपनाई जाने वाली प्रक्रिया का । हिन्दू विवाह के लिए निम्नलिखित शर्तें आवश्यक हैं ।
प्रथम हिन्दू विधि में प्रतिलोम विवाह निषिद्ध है विवाह समान अथवा अनुलोम "वर्णों " में ही हो सकता है । ध्यान रहे ये शब्द जाति न होकर वर्ण हैं
द्वितीय शर्त यह है कि विवाह करने वाले पक्ष (वर - वधू) सपिंड तथा सगोत्र नहीं होने चाहिए ।
सपिंड के बारे में याज्ञवल्क्य लिखते हैं -
"पञ्चमात सप्तमात ऊद्ध्वँ मातृतः पितृतस्तथा ।।
अर्थात कन्या के पिता की ओर से से सात पीढ़ी तथा माता की ओर से पांच पीढ़ी के भीतर नहीं होनी चाहिए ।
इसी तरह वर तथा वधू एकगोत्र के नही होने चाहिए । इसके वैज्ञानिक और सामाजिक कारण हैं । कई लिंग सहलग्न रोग की रोकथाम के लिए ऐसा किया जाता है जो सपिंड विवाह के कारण फैलते हैं।  जैसे हीमोफीलिया आदि ।
किन्तु परम्परा के अधिभावी होने के कारण कई जगहों पर ऐसी परम्परा है कि ममेरी या फुफेरी बहन से शादी हो सकती है । कुछ स्थानों पर ऐसी परम्परा है की विवाह स्वयम के गोत्र में ही होते हैं ।
तीसरी शर्त है विवाह की हिन्दू विवाह में धार्मिक क्रियाएं सम्पन्न होनी चाहिए यह गन्धर्व विवाह के अतिरिक्त सभी मान्य विवाहों के लिए आवश्यक है । इसकी तीन अवस्थाएं होती है -
प्रथम तिलकोत्सव , यह इस आशय से मनाया जाता है कि वर विवाह करने की प्रतिज्ञा कर ले;
द्वितीय अग्नि के सम्मुख मंत्रोच्चारण द्वारा औपचारिकताओं की पूर्ति ; तथा
तृतीय है सप्तपदी गमन , अर्थात अग्नि के चारों तरफ वर-कन्या द्वारा सात बार परिक्रमा करने की क्रिया अनिवार्य है ।
 इन तीनों क्रियायों को पूरा करने के तरीके बेशक अलग अलग है किंतु प्रक्रियाएं यही पूरी की जाती हैं ।
स्त्रीधन
स्त्रीधन एक अत्यंत व्यापक शब्द है इसके अंतर्गत विवाह से पूर्व तथा विवाह के उपरांत स्त्री को प्राप्त होने वाली सम्पूर्ण सम्पत्ति आती है ।  जिसे हम दहेज कहते हैं वो सम्पत्ति भी इसके अंतर्गत आती है । याज्ञवल्क्य के अनुसार -
पितृमातृपतिभातृदत्त मध्यमग्नयुपागतं ।
आधिवेदनिकायं च स्त्रीधनं परिकीर्तितं ।।
अर्थात माता, पिता, पति तथा भाई द्वारा दिया गया उपहार तथा अध्याग्नि एवं अधिवेदनिक में प्राप्त उपहार आदि स्त्री की सम्पत्ति कही जाती है ।
स्मृतियों के अनुसार निनमलिखित 16 चीजे स्त्रीधन के अंतर्गत आती हैं ।
1- अध्यग्नि -- वैवाहिक अग्नि के सम्मुख दिया गया उपहार;
2- अध्यवह्निका- वधू को पतिगृह जाते समय दिया गया उपहार;
3- प्रीतिदत्त- सास- ससुर द्वारा स्नेहवश दिए गए उपहार ;
4- पतिदत्त- पति द्वारा दिये गए उपहार ;,
5- पदवंदनिका - नतमस्तक प्रणाम करते समय बड़ों द्वारा दिया गया उपहार;
6- अन्वयध्येयक- विवाह के बाद पति के परिवार द्वारा दिया गया उपहार ;
7- अधिवेदनिका- दूसरी वधू लाने पर प्रथम वधू को दिया गया उपहार;
8- शुल्क- विवाह हेतु प्रदान किया गया धन ;
9- वन्धुदत्त- माता पिता के सम्बन्धियों द्वारा दिया गया धन;
10- यौतिक - विवाह के समय जब पति पत्नी एक स्थान पर बैठे हों उस समय दिए गए उपहार;
11- आयौतिक - वे उपहार जो यौतिक के अतिरिक्त हैं;
12- सौदायिक - माता पिता अथवा भाई  से प्राप्त अचल संपत्ति;
13- असौदायिक- माता-पिता अथवा भाई से प्राप्त चल सम्पत्ति;
14- वृत्ति - भरण - पोषण के लिए दी गयी सम्पत्ति अथवा धन ;
15- पारिभाषिक- अग्नि के सम्मुख तथा वधु गमन के समय प्राप्त उपहार ; तथा
16- अन्य सम्पतियाँ जो किसी अन्य स्रोत से प्राप्त होती हैं ।
याज्ञवल्क्य के अनुसार -
दुर्भिक्षे धर्मकार्ये च व्यधौ सम्प्रतिरोधके ।
गृहीतं स्त्रीधनं भर्त्ता ब स्त्रीयै दातुम् अर्हति ।

अर्थात दुर्भिक्ष(अकाल), धर्म-कार्य तथा रोग - व्याधि आदि दशाओं को छोड़कर किसी अन्य दशा में यदि पति स्त्रीधन में से कुछ लेता है तो उसे लौटना आवश्यक है ।
अर्थात किसी भी तरह का धन जो पत्नी को प्राप्त हुआ है अथवा पत्नी के गृह से प्राप्त हुआ है उसपर पति का कोई अधिकार नहीं पत्नी की मृत्यु के उपरांत ही वो धन पति के अपत्यों को प्राप्त होता था । इस प्रकार धर्मतः दहेज के धन पर पति अथवा उसके परिवार वालों का कोई अधिकार ही नहीं रह जाता किन्तु ये नियम विकृत हो गया और आज के दौर में यह धन पति और उसके सम्बन्धियों के प्रयोग में आने लगा जिसके कारण दहेज मांगने की प्रथा का जन्म हुआ यदि यही विचलन रोक दिया जाए तो दहेज एक कुप्रथा न होकर फिर से अपने पूर्व सुंदर रूप स्त्रीधनं को प्राप्त कर लेगी ।
विवाह_विच्छेद_या_परित्याग_अथवा_पुनर्विवाह ------------------
भारतीय संस्कृति में विवाह पति पत्नी का एक अविछिन्न सम्बन्ध है । मनु के अनुसार -
सकृद कन्या प्रदीयते ।
अर्थात विवाह में कन्या एकबार दी जाती है जो जीवन पर्यंत उसी की पत्नी बनी रहती है ।
मनु के अनुसार  , "न तू नामापि गृह्नीयात प्रत्योप्रेते परस्यतु ।"
अर्थात पत्नी  स्वप्न में भी दूसरा विवाह करने के लिए सोच नहीं सकती ।
यो धर्म एकपत्नीनाम् कांक्षान्तितमनुत्तमम ।
अर्थता एक पत्नी धर्म का पालन करते हुए व्यक्ति यदि शरीर को क्षीण कर देता है तो उत्तम गति की प्राप्ति होती है ।
इस प्रकार मनु ने पति और पत्नी दोनों को एक विवाह करने की ही अनुमति दी है तथा उसने अविछिन्न बताया है ।
किन्तु मेरा मानना है कि कोई भी व्यवस्था ऐसी बन्द नहीं होनी चाहिए कि यदि किसी निर्दोष के प्रति कोई अपराध हो तो उसे न्याय न मिल सके । यथा किसी स्त्री का पति दुराचारी, पागल अथवा मूर्ख हो धोखे से उनका विवाह करवा दिया जाए तो क्या हो ? अथवा किसी पति की पत्नी दुराचारिणी हो तो उस पति को न्याय कैसे प्राप्त हो ? इसलिए मेरा मानना है कोई ऐसी संस्था होनी चाहिए जिससे कि इन विक्षुब्ध पक्षकारों को न्याय मिल सके ।
आगे के स्मृतिकार नारद और पराशर ने एक व्यवस्था दी है इनको न्याय दिलाने के लिए ।
नष्टे मृते परिब्रजते क्लीवे च पतिते पतौ ।
पंचsपत्सु नारीणं पतिsन्यद विधीयते ।।
अर्थात यदि पति खो गया हो, मर गया हो,सन्यासी हो गया हो, नपुंसक हो गया हो अथवा सामाजिक बहिष्कार कर दिया गया हो तो पत्नी द्वितीय विवाह कर सकती है । 
इसी प्रकार स्मृतिकारों का मानना है कि पत्नी यदि दुराचारिणी हो तो पति दूसरा विवाह कर सकता है । सन्तानोत्पत्ति न होने पर किसी भी पक्ष को पुनर्विवाह करने की आज्ञा नहीं दी गयी है उसके लिखे सम्पूर्ण विश्व से अनोखी एक प्रथा भारत में है #दत्तक लेने की प्रथा , इस प्रथा के द्वारा निःसन्तान दम्पत्ति को सन्तान की प्राप्ति हो जाती है ।
इस प्रकार प्राचीन भारत में विवाह विच्छेद अथवा तलाक़ जैसी कोई व्यवस्था नहीं थी किन्तु पुनर्विवाह के द्वारा विक्षुब्ध व्यक्ति को न्याय देने की व्यवस्था की गई थी ।
तथा ये भी आधारहीन तथ्य है कि विधवा विवाह की आज्ञा नहीं थी प्राचीन भारत में ये मात्र मनुस्मृति द्वारा शासित होने वाले बंगाल में नहीं थी बाकी पूरे भारत में प्रचलित थी ।

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