तन्त्र और भोग ( पंच मकार )
अध्यात्म – १
विषय – पंच मकार
तंत्र विज्ञान में सबसे
विवादित अवधारणा है पन्च मकार की जबकि यह तन्त्र साधना का आधार भूत सिद्धांत है |
बिना उसके आप तंत्रों को सिद्ध भी नही कर सकते हैं | तन्त्र के इतिहास के बारे में
बहुत ज्ञात नही है कब ये प्रारम्भ हुआ; क्योकि याज्ञवल्क्य स्मृति में विद्या के
जो चौदह स्थान गिनाये गये हैं उसमें तन्त्र का नाम नहीं आता है | इसी प्रकार
वेदों, उपवेदों, पुरानों तथा, उपपुराणों और इतिहास के ग्रंथों में भी तन्त्र गिना
नहीं गया है | वेदों में अथर्ववेद में कुछ क्रियायों का उल्लेख है जिसे हम तन्त्र
का पूर्ववर्ती मान सकते हैं |
तन्त्र विद्या में पंच मकार
और उसके महत्व इस प्रकार बताये गये हैं –
१-
मद्यपान से आठों सिद्धियाँ;
२-
मांस भक्षण से नारायण के
समान ;
३-
मत्स्य भक्षण से कालिका के
समान ;
४-
मुद्रा से विष्णु के समान;
५-
मैथुन से योगी स्वयं शिव के
समान हो जाता है |
किन्तु भारतीय दर्शन कभी
ऐसा नही रहा है जो कि समाज में बुराई फैलाने का कारण बने अतैव इस साधना से पूर्व
इन शब्दों ( मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा तथा मैथुन) का अर्थ जान लेना भी आवश्यक है
|
मद्य का अर्थ –
तांत्रिक ग्रन्थ भैरवयामल
के अनुसार – मद्यपान का अर्थ है “ जिस समय साधक की कुंडलिनी, षट्चक्र का भेदन करके
ब्रह्मरन्ध्र में स्थितं सहस्त्रार चक्र पर पहुचती है उस समय सोम कमल चक्र से
श्वेत रंग का अमृत टपकता है | यही मद्य या सुरा है | यहाँ पर इसी के पान की बात
कही गयी है | इसी तरह का वर्णन गन्धर्वतन्त्र तथा आगमसार में भी प्राप्त होता है |
मांस का अर्थ –
भैरवयामल कहता है – “वाणी
पर संयम करके काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि पशुओं को ज्ञान रुपी तलवार से
मारकर अपने सब कर्मों को परब्रह्म को अर्पित कर देना ही मांस का प्रयोग है |
मत्स्य का अर्थ –
भैरवयामल के अनुसार – “गंगा (इडा) तथा यमुना (पिंगला) नदियों
(नाड़ियों) में जो दो मछलियाँ ( श्वास तथा प्रश्वास यानी सांस का आना जाना) ये मन
तथा इन्द्रियों के लिए घटक हैं अतैव उनका प्राणायाम द्वारा नाश कर देना ही मत्स्य
का सेवन है |
मुद्रा का अर्थ –
रूद्रयामल के अनुसार –
“कुंडलिनी के सहस्त्रार महापद्म के के अंतर्गत बंद पंखुड़ी के भीतर ( द्विदल कमल के
बीच ) जो विशुद्ध पारे जैसा करोड़ों सूर्यों के समान तेजस्वी होने पर भी चन्द्रमा
की भांति शीतल आत्मा है, वहां कुंडलिनी से मिल जाने पर ज्ञान प्राप्त करने वाले को
ही मुद्रा साधक कहते हैं |
विजय तंत्र में कहा गया है
कि दुष्टों की संगति से बचे रहने को ही मुद्रा कहते हैं |
मैथुन का अर्थ –
विजय तन्त्र में कहा गया
हैं – “इडा तथा पिंगला नाड़ियों में स्थित प्राणों (श्वास तथा प्रश्वास) को
सुषुम्ना में प्रवर्तित कर दें क्योंकि सुषुम्ना ही शक्ति है और जीव ही परमात्मा
शिव है | उनके ( जीव और सुषुम्ना के ) संगम को ही देवताओं द्वारा मैथुन कहा गया है
|
रुद्रयामल के अनुसार –
“सहस्त्रार के ऊपर वाले बिंदु ( लिंग) परमात्मा अपने जीवात्मा और कुंडलिनी को ले
जाकर मिलाना ही मैथुन क्रिया है |
यहीं पर कुछ लोग इन चीजों
का लौकिक अर्थ लगाकर समाज में व्यभिचार तथा अनाचार को बढ़ावा देने का कार्य करते है
भागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्द के द्वितीय अध्याय में तथा पद्म पुराण में कहा गया
है कुछ लोग शिव का नाम लेकर समाज में पाखंड को बढ़ावा देते हैं ये दंडनीय हैं तथा
रामायण में भी इन्हें दंडित किये जाने का आदेश दिया गया है | वास्तव में ये लोग
स्वयं तो अपराध करते ही है ऐसा करके तथा समाज को भी अपराध तथा पतन की तरफ ले जाते
हैं और हमारी सभ्यता और संस्कृति की आलोचना और मखौल उड़ाया जाता है इन अज्ञानियों
की वजह से |
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