रामोsहं - प्रयास राम बनने का
जबसे राम को थोड़ा बहुत जाना या सुना है हमेशा से राम में एकाकार होने का सपना रहा है । जब मैं इन राम की बात करता हूँ तो यहां पर राम शब्द का कोई दार्शनिक या अन्य अर्थ नहीं है बल्कि मैं बात करता हूँ तुलसी के उन्ही राम की जो मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम थे और अयोध्या के इच्छवाकु वंशी महाराजा दशरथ के पुत्र और महाराज आज के पौत्र थे । उन्होंने नररूप धारण करके बताया कि सत्य, धर्म और विशुद्ध मानवीय मूल्यो के साथ जीवन का निर्वाह बिल्कुल प्रायोगिक होकर किया जा सकता है जिसमें प्राणी मात्र के कल्याण का उद्देश्य निहित हो । एक बेहतरीन पुत्र, भाई, पति , योद्धा और मनुष्य बनकर ।
किन्तु विडम्बना यह है कि मैं प्रयास करता हूँ दशरथ पुत्र राम के रूप में जीने का परन्तु प्रत्येक प्रयास के बावजूद मन मे असंतोष किन्ही कारणों से उत्पन्न हो जाता है जिसकी परिणति क्रोध के रूप में हो जाती है ।बार - बार सोचता हूँ आखिर इसका कारण क्या है ? फिर एक तर्क अपनी इस नाकामी को छिपाने के लिये मन गढ़ लेता है "राम जैसा पुत्र बनने के लिए आवश्यक है कि दशरथ जैसा पिता भी हो ।" किन्तु हर बार इस तर्क को मन में उतारने में असफल रहता हूँ कि "यदि पुत्र राम होगा तो पिता स्वमेव दशरथ हो जाएगा।"
प्रयास करता हूँ राम जैसा भ्राता ही बन जाऊं परन्तु मन मे कहीं न कहीं अपने अनुज और अनुजा के किन्ही कृत्यों के प्रति क्षोभ अवश्य उत्पन्न हो जाता है जिसकी परिणति क्रोध के रूप में हो जाती है । अक्सर वे चीजें याद नहीं रह पाती जो कि उनका मेरे प्रति स्नेह प्रदर्शित करती हैं जबकि वे चीजे ही सनद रहती हैं जो मैंने स्नेहपूर्वक नहीं बल्कि दर्पपूर्वक अपने बड़प्पन के घमण्ड में किया है । फिर अपनी असफलता पर वही तर्क आता है "मेरे भाई- बहन लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न जैसे नहीं है जो मैं राम बन सकूँ ।" पुनश्च असफल हो जाता हूँ यह याद रखने मे कि "यदि वास्तव में मैं राम बन सकता तो वे अवषयभी अपनी रामायणीय भूमिकाओं में आ जाते ।"
इसी प्रकार प्रकार प्रत्येक सम्बन्ध चाहे वे समाज के रहे हों अथवा राष्ट्र से , चाहे वे गुरुजनों से रहे हो अथवा लघुजनों से प्रत्येक स्थान पर स्वयं को राम सिद्ध करने में स्वयं को असफल पाने के उपरांत उन्हें उस योग्य न पाने के तर्क ने इस असफलता को और अधिक बढ़ावा दिया है ।
अब फिर से प्रयास करूंगा कि स्वयं को "रामोsहं" सिद्ध कर सकूं ।।
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