सोशल मीडिया कितना सोशल ========


तिथि थी 22 जुलाई 2017 की मैं राज्यसभा टीवी पर एक डिबेट देख रहा था विषय था "सोशल मीडिया कितनी सोशल" प्रथम दृष्टया ये विषय मुझे ऐसा ही लगा कि जैसे कोई पूछे कि "दर्द निवारक औषधि कितनी लाभकारी" । सबसे पहली बात यह होती है कि आखिर उस औषधि अथवा मीडिया का प्रयोगकर्ता कैसा है ? क्योंकि माध्यम का अपना कोई आशय , दुराशय या जिसे लैटिन भाषा में कहते हैं mens rea नही होती है जैसे हम आतंकियों द्वारा गोली चलाने के लिए Ak-47 को दोषी नहीं बता सकते वैसे ही यहां भी परिस्थिति आती है । कई लोग अलग अलग बातें बता रहे थे कोई इसे जंगल बता रहा था तो कोई रेगुलेट करने की बातें कर रहा था जैसे तमाम सकारात्मक और नकारात्मक बातें सामने आ रही थीं ।

सर्वप्रथम हमें जानना चाहिए  कि सोशल मीडिया महज एक माध्यम है जो कि सामाजिक मेल मिलाप , बातचीत तथा सूचना भेजने और प्राप्त करने की गति तीव्र कर देता है और दूरियां घटाता है । यहां पर होने वाली घटनाएं यथा सत्य-असत्य, सम्मान-अपमान, गालियां-दुलार आदि से उसका कोई लेना देना नहीं है  उसका लेना देना समाज के लोगों तथा उनकी सोच से है । जब सोशल मीडिया पर राजनीतिक अथवा कोई अन्य विशेष तरह की बात  होती है तो मुझे नुक्कड़ की चाय की दुकान जैसी लगती है जहां पर जो लोग बिना काम-धाम के होते थे दिनभर और दिनभर अधकचरा ज्ञान उड़ेलते और गप्पें मारते और जो अपनी धौंस जमा लेता उसकी हां में हां सब मिलाते । उसी में आपस मे लड़ाई- झगड़े, फब्तियां, गाली-गलौज भी करते थे फिर मामला रफा दफा ।

बात आती है गाली-गलौज की वो भी आप पर निर्भर करता है किसी संगत आपने पाल रखी है  । हमारा जब बचपन था हम लोग शाम को जब टहलने निकलते थे तो एक जगह हम लोग बैठते थे जो कि हमारे खेतों से गुजरने वाली सड़क पर बने हुए पुल थे उसे हम लोगों ने "थिरुआ बेंच" नाम दिया था । जहाँ पर बैठकर हम लोग हर तरह की बातें करते थे पर हमारे ग्रुप की खासियत थी एक दूसरे का  *सम्मान और नैतिकता*  । हम बातों में एक दूसरे का मज़ाक भी बनाते थे पर वो भाषा के संयम की सीमा कभी पार नहीं करते थे । आज हम सारे लोग जब  सोशल मीडिया पर है तो भी हम लोग और हमसे जुड़े लोग हमसे बातों में भाषा का संयम बनाये रखते है और यदि किसी ने संयम तोड़ा तो शायद हमारे रिश्ते बने नहीं रह पाते हैं आगे । कुछ ऐसे भी लोग हैं जो न तो समाज में ही और न ही सोशल मीडिया पर ये संयम बनाये रख पाते है शायद ये कुछ नहीं बल्कि ज्यादातर लोग हैं । इसका कारण ये है कि समाज के बड़े हिस्से की भाषा ही ऐसी है ।  और उसका कारण सोशल मीडिया नही बल्कि  बल्कि संस्कार हैं ।

अगर हम अपराधों की बात करते हैं तो जैसा कि हम जानते हैं अपराध के 5 आवश्यक तत्व होते है ; दुराशय, तैयारी, प्रयास, कोई कार्य अथवा कार्य का लोप, विधि के अधीन दण्डनीयता । 

इसमें प्रथम चीज दुराशय की ही उत्पत्ति सबसे पहले होती है व्यक्ति में और उसके उत्पत्ति के कारकों के बारे में अपराधशास्त्र की समाजशास्त्रीय शाखा के विधिशास्त्री एक सिद्धांत देते है बहुविधि कारकों का सिद्धांत । 

इसके अंतर्गत एक विद्वान "विलयम हीले" कुछ जिम्मेदार कारकों के नाम गिनाते है जैसे - गतिशीलता, संस्कृतियों में अंतर्विरोध, पारिवारिक स्थिति, राजनीतिक विचारधारा, धार्मिक मान्यताएं, आर्थिक दशा, अपराध की पारिस्थितिकी और प्रचार माध्यमो का प्रभाव आदि । 
इनमें से सोशल मीडिया गतिशीलता और प्रचार माध्यम का तो कार्य करती ही है साथ साथ अन्य कारकों के विसरण को गति भी प्रदान करती है बस यही इतना योगदान करती है सोशल मीडिया अपराधों के बढ़ने में । इसके अतिरिक्त अनेक क्या अगणित अच्छे कार्य इसके द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं ।

अन्य बात होती है इसके विनियमन की । सर्वाधिक कठिन कार्य है मीडिया का विनियमन चाहे वो प्रिंट मीडिया हो अथवा इलेक्ट्रॉनिक या फिर  सोशल मीडिया । प्रिंट मीडिया के लिए थोड़ा सा आसान है क्योंकि इसकी गति धीमी है और यह एक विशेष क्रम से आती है उसी क्रम में से किसी एक कड़ी पर उसे रोक सकते हैं अथवा विनियमन कर सकते हैं किंतु वहां भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को दबाने की बात आती रहेगी । इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और तेज है किंतु इसमें भी एक कड़ी है इसके लिए कोई जिम्मेदार व्यक्ति होता है फिरभी इसका विनियमन आजतक नहीं किया जा सका ठीक से जो हुआ भी वो वही "ढाक के तीन पात" अगर किसी गलती पर कुछ कार्यवाही हो जाती है इनके ख़िलाफ़ तो ये स्क्रीन काली करके और कुछ लोगों के साथ बैठकर रुदन करना प्रारम्भ कर देते हैं और उस काल को आपातकाल से संज्ञापित करते हैं फिर कुछ अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं उन्हें हीरो बनाकर कुछ पुरस्कारों से नवाज देती हैं ।

यदि हम सोशल मीडिया की बात करते हैं तो पाते है कि सोशल मीडिया की गति और पँहुच दोनों बहुत ज्यादा है और यहां हर कोई दो तरफ़ा संवाद करने में सक्षम है जो इसे अनोखा बनाती है । इस दोतरफ़ा संवाद की गुंजाइश प्रिंटमीडिया मेंसबसे कम और इलेक्ट्रॉनिक मेम उससे कुछ ज्यादा होती है   परंतु सोशल मीडिया पर तो हर कोई आमने सामने बात करने में सक्षम है और सवाल पूछने और प्रतिउत्तर में भी हर किसी के अनुयायी है कुछ न कुछ और वो एक सेना की भांति लड़ते हैं । अभी कुछेक दिन पहले की बात है किसी के द्वारा गलत तथ्य दिए जाने पर मैंने बस वास्तविकता बताई तो सामने से एक धमकी भरा अनुरोध आया "हिमांशु भाई आप इसका बचाव न करें तो बेहतर होगा।"  फिर वही सवाल उठता है जो झूठ या अनर्गल बातें परोसी जा रही हैं उनका विनियमन कैसे हो ? आज एक एकाउंट बन्द करेंगे वो कल 3 और बनाकर सामने आएंगे ।आप जब तक कंटेंट रिव्यु करके नेटवर्क से हटाएंगे तब तक वो हज़ारों लोगों तक पँहुच चुके होंगे । दण्ड संहिता अथवा अन्य दण्ड विधानों से दण्डित करने के लिए कड़ा कानून बनाएंगे तो उसका जमकर दुरुपयोग भी होगा ।

यदि हम कुछ कर सकते है तो अपने संस्कारो  को सुधार सकते हैं मानसिकता में बदलाव ला सकते है बस हमारी मानसिकता ही सोशल मीडिया को ज्यादा सोशल बना सकती है ।

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