भूकम्प
उठ रहा प्रकम्पन घोर अहा ।
है जन की दरुणा घोर महा ।
महि डोल रही कछु बोल रही ।
रुक जा रुक जा सुन जा सुन जा ।
क्यों करता दारुण पाप महा ?
वन तोड़ रहा गिरि फोर रहा ।
नदियो -नद को यूँ घेर रहा ।
है बेला अभी रुक जा रुक जा ।
प्रकृति से न कर रार यहां ।
वो है यहां बलवान महा ।
गर ठानेगा न मानेगा भोग ही सब कुछ जानेगा ।
दिन दूर नही यह भूल नही तृण सम खुद को मारेगा ।
तजि नश्वर इस परिपाटी को ।
धर ध्यान स्वयं की माटी को ।
कुछ कर ऐसा की बन जाए ।
इह लोक भी आज संवर जाए ।
है जन की दरुणा घोर महा ।
महि डोल रही कछु बोल रही ।
रुक जा रुक जा सुन जा सुन जा ।
क्यों करता दारुण पाप महा ?
वन तोड़ रहा गिरि फोर रहा ।
नदियो -नद को यूँ घेर रहा ।
है बेला अभी रुक जा रुक जा ।
प्रकृति से न कर रार यहां ।
वो है यहां बलवान महा ।
गर ठानेगा न मानेगा भोग ही सब कुछ जानेगा ।
दिन दूर नही यह भूल नही तृण सम खुद को मारेगा ।
तजि नश्वर इस परिपाटी को ।
धर ध्यान स्वयं की माटी को ।
कुछ कर ऐसा की बन जाए ।
इह लोक भी आज संवर जाए ।
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