भारत में लोकतंत्र का विकास

भारत में लोकतंत्र का विकास
अमूमन ज्यादातर विद्वान लोकतंत्र को पश्चिम की उपज मानते है खासकर ब्रिटिश परम्परा को इसकी जननी मानते है | ज्यादातर विद्वान अंग्रेजो की इस मदमत्त विचारधरा से सहमत दिखते है की “ईश्वर ने भारत को सभी बनाने के लिए उन्हें भारत का राज्य सौपा |”
 वर्तमान लोकतान्त्रिक  परम्परा का अध्ययन करने पर हमे पूरी दुनिया में यही निष्कर्षतः स्वरूप पारपत होता है की प्रत्येक लोकतान्त्रिक राष्ट्र चाहे वो ब्रिटेन हो या फिर संयुक्त राज्य अमेरिका चाहे फिर कनाडा हो या आस्ट्रेलिया सब के पास द्विसदनात्मक केन्द्रीय विधानमंडल और उसके द्वारा अनुमोदित अधिनियमों को अंतिम स्वीकृति देने के लिए राष्ट्रपति या राजा जैसी शक्ति मौजूद है | ब्रिटिश परम्परा में इसके पास न्यायिक और सैनिक शक्तियां भी मौजूद है | विश्व के सारे संविधान उस देश की जनता द्वारा ही अधिनियमित, अंगीकृत और आत्मार्पित है अर्थात अपौरुषेय है किसी एक व्यक्ति द्वारा रचित नही है न ही किसी एक सम्प्रभु व्यक्ति का समादेश है |
इस प्रकार से उक्त विवेचना के फलस्वरूप वर्तमान लोकतान्त्रिक  प्रणाली के मुख्य अवयव के रूप में हम कुछ तत्व पाते है जो की अग्रवर्णित है –
           राष्ट्राध्यक्ष चुना हुआ ;
  द्विसदनात्मक विधानमंडल ;
राष्ट्राध्यक्ष चुना हुआ जनता द्वारा प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से चुना हुआ राष्ट्राध्यक्ष लोकतंत्र की सबसे बड़ी और ख़ास बात है इसके बिना कोई राष्ट्र पूर्ण रूप से गणतंत्रात्मक लोकतंत्र नही हो सकता है | भारत में वर्तमान समय में राष्ट्राध्यक्ष का चुनाव जनता द्वारा अप्रत्यक्ष रूप  से होता ही है वरन पुराकाल में भी राजा के निर्वाचन के लिए पद्धति मौजूद थी |
ऋग्वैदिक काल जब की युद्ध अर्थात गविष्ठी के समय राजा का चुनाव होता था और जन का प्रत्येक व्यक्ति उसे अपनी सामर्थ्य के अनुसार बलि(भेंट) देता था | ऋग्वेद में एक कथा आती है जिसमे एकबार इंद्रा के स्थान पर वरुण को देवताओ का राजा चुना गया था |
समय के बदलने के साथ साथ समाज और अधिक व्यवस्थित होता गया | राज्य जो पहले एक कबीले तक सीमित होते थे अब विशाल साम्राज्य में परिवर्तित होने लगे फलस्वरूप प्रत्यक्ष निर्वाचन पद्धति को अपनाना अब टेढ़ी खीर साबित होने लगा | एतेव अब राजा के निर्वाचन के लिए अप्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली अपनाई जाने लगी | इस पद्धति में जनता के विभिन्न वर्गों से “सात रत्नियो” का चुनाव होता था जो की राजा का चुनाव करते थे | यही पद्धति मध्यकाल तक चली आई परन्तु मध्यकाल में अरबी अथवा असीरिया की शासन पद्धति ने प्राचीन भारतीय पद्धति को समाप्त कर नये निरंकुश राजतंत्र की स्थापना की |
द्विसदनात्मक विधानमंडल – प्राचीन भारतीय शासन प्रणाली में भी द्विसदनात्मक विधानमंडल का उल्लेख मिलता है | ऋग्वेद के अनुसार राजा को सलाह देने और सामरिक मुद्दों पर विचार विमर्श के लिए दो प्रकार की संस्थाए हुआ करती थी |
(अ)  सभा
(ब)  समिति
सभा जन सामान्य का प्रतिनिधित्व करती थी | इसके सदस्य जन सामान्य के बीच से चुनकर आते थे जैसा की आज की भारत की लोक सभा ब्रिटेन की हाउस ऑफ़ कॉमन्स और संयुक्त राज्य अमेरिका के हाउस ऑफ़ रिप्रेजेन्टेटिव में होता है |

दूसरी संस्था थी समिति इसके सदस्य विशेष योग्यता प्राप्त व्यक्ति होते थे जिनमे से राजा के शासन में सहयोग करने वाले मंत्री भी होते थे | जैसा की आज भारत में राज्यसभा, ब्रिटेन में हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स और संयुक्त राज्य अमेरिका में सीनेट होती है |

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