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ध्यान और सन्यास तथा जीवन

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मुझसे प्रश्न किया गया था; मैं ध्यान के माध्यम से जीवन से विरक्त हो शांति प्राप्त करना चाहता हूँ क्या ये सही होगा ? उत्तर - सन्यास ले लेना या ध्यान की तरफ चले जाना लोगों को लगता है कि शन्ति प्राप्त हो जाएगी संसार से छूटकारा मिल जाएगा या फिर ध्यान या सन्यास कोई जादू है जो आपकी मानस इच्छाओं को समाप्त कर तुंरत आपको ऐसी शक्ति से जोड़ देगा जिसके पास सभी समस्याओं का हल होगा । किन्तु इसका उत्तर पूर्णतया नकारात्मक है । नहीं हर व्यक्ति सन्यास या ध्यान से शन्ति नहीं प्राप्त कर सकता है । फिर तर्क दिए जाएंगे कि बुद्ध, शंकराचार्य, स्वामी विवेकानंद आदि के जीवन का । वास्तव में हम इनके जीवन को ठीक से नहीं पढ़ते हैं हम उनके सन्यास की तरफ उन्मुख होने के समय की मनोदशा को ही नहीं समझ पाते हैं । मैं वेदों, शास्त्रों या क्लिष्ट संस्कृत ग्रंथों की तरफ नहीं जाना चाहता हूँ । आपको तुलसी बाबा द्वारा रचित एक चौपाई जो कि रामचरितमानस के उत्तकाण्ड का हिस्सा है सुनाता हूँ - "नारि मुई गृह सम्पति नाशी । मूँड़ मुड़ाय भये सन्यासी ।।" वास्तव में यह मात्र व्यंग नहीं है अपितु यह नकारात्मक रूप से सन्यासी की

कश्मीर और बाकी भारत - स्थितियां परिस्थितियां व विवेचना ।।

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मीडिया की नजर में जम्मू कश्मीर से आशय मात्र श्रीनगर के आस पास का क्षेत्र होता है लेकिन जानना जरूरी है वास्तव में जमीनी सच्चाई क्या है इसकी । जम्मू कश्मीर के पूरे राज्य को हम चार भागों में बांट सकते हैं लेह लद्दाख क्षेत्र, जम्मू क्षेत्र , कश्मीर क्षेत्र तथा पाक अधिकृत कश्मीर । इसमें से लेह लद्दाख क्षेत्र और जम्मू क्षेत्र शांत क्षेत्र है यहां पर कोई डिस्प्यूट नहीं है । ये भारतीयता के प्रबल समर्थक लोग है । उसके बाद आता है आता है पाक अधिकृत कश्मीर जो कि पाकिस्तान द्वारा जबरदस्ती कब्जा लिया गया था और मामला संयुक्त राष्ट्र में होने के कारण यथास्थिति बनाये रखी गयी है लेकिन पाकिस्तानी जुल्म के कारण वे लोग अत्यंत कष्ट में हैं अगर उन्हें बाहर से कोई सहायता मिल जाये तो वे स्वतन्त्र होने की इच्छा रखते हैं । अब बात करते हैं बाकी कश्मीर की बाकी बचा हुआ कश्मीर जो है उसमें श्रीनगर के आस पास का जो क्षेत्र है जिसमें श्रीनगर का लालचौक क्षेत्र, पुलवामा,बड़गाम, गंदेरबल तथा बारामुला और किश्तवाड़ का कुछ क्षेत्र है जो कि आतंकियों का गढ़ है कारण है कि सबसे ज्यादा शासक और प्रशासक इसी क्षेत्र से हैं और पैस

सफलता के दस (10) सूत्र

सफलता के 10 सूत्र - 1- मेहनत कीजिये । 2- मेहनत के दो परिणाम सामने आते हैं सफलता और असफ़लता । असफलता की दशा में निराश न हों । 3- असफलता यदि मिलती है तो उससे सीखें कहाँ त्रुटियां रह गईं जिसके कारण असफ़लता मिली । 4- ईश्वर के प्रति अस्थावान बने यह आपके आत्मबल को बढ़ाता है और आत्महत्या की प्रवृत्ति को घटाता है । 5- असफलता मिलने पर लोग सफलता के लिए छोटा रास्ता (शॉर्टकट) खोजने लगते हैं । यह बिल्कुल न करें यह आपको नैतिक रूप से भ्रष्ट तो बनायेगा ही साथ साथ आपके समय की बर्बादी और आपको मुश्किल में भी डाल सकता है । 6- मेहनत से संतुष्ट न हों किन्तु फल से सदैव सन्तुष्ट रहें । मेहनत के प्रति असंतोष आपमें मेहनत करने की जिजीविषा को बढ़ाएगी तथा फल के प्रति सन्तुष्टि आपको मानसिक तनाव से मुक्त रखेगी । 7- प्रत्येक परिस्थिति में ध्यान रहे कि कुछ भी नामुमकिन नहीं है किंतु हर कार्य उसकी सही मेहनत के आकलन के साथ शुरू करें । यदि आपका आकलन सही है तो हर कार्य आसान लगेगा अगर आपने कम आंका है मेहनत तो आपको कार्य कठिन लगेगा । 8- हर कार्य जरूरी नहीं कि सामने से जितना आसान दिखता है उतना हो उसमें अनेक परीक्

विज्ञान और धर्म

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Science And Religion "(विज्ञान और धर्म)" जैसा कि सर्वविदित है कि प्रत्येक सभ्यता में अनेक कारक होते हैं जो मानव के जीवन को प्रभावित करते हैं उनमें विज्ञान और धर्म भी समाहित हैं । विज्ञान शब्द का अर्थ होता है "विशिष्ट ज्ञान" तथा अंग्रेजी के शब्द रिलिजन की उत्पत्ति हुई है पुर्तगीज भाषा के शब्द "religare" से जिसका अर्थ होता है बंधना अर्थात मनुष्य को ईश्वर से बांधना । वास्तव में रिलिजन शब्द संस्कृत शब्द "धर्म" का अंग्रेजी अनुवाद है , महाभारत के कर्ण पर्व के अनुसार धर्म का अर्थ होता है "प्राणी मात्र के कल्याण के लिए धारणीय कर्तव्यों का समुच्चय" । अर्थात धर्म प्राणियों के कल्याण की एक अवधारणा का नाम है । अरुणा राय बनाम भारत संघ के वाद में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने धर्म को परिभाषित करते हुए धारित किया कि "धर्म जीवन जीने की पद्धति का नाम है  ।" यदि हम विश्व पटल पर देखें तो विज्ञान और धर्म के सम्बन्धों को स्पष्ट करने के दो परिदृश्य सामने आते हैं।  प्रथम है यूरोपियन परिदृश्य तथा द्वितीय है भारतीय परिदृश्य । यूरोपियन परिद

घरेलू हिंसा

घरेलू हिंसा जहां भी घर है हर जगह रही है सदैव भारत ही नहीं अपितु पूरे विश्व में यह रही है । यह अलग बात है कि यूरोप ने 20वीं सदी में काफी हद तक काबू पा लिया । भारत भी इस दिशा में काफी सुधर चुका है पर काफी कार्य बाकी रह गया है।  मध्य एशिया और पश्चिम एशिया तथा अफ्रीका  में ये अभी भी अपने चरम पर है मिस्र जैसे देशों में तो फतवे जारी होते हैं कि कोई व्यक्ति भूखा हो तो काटकर अपनी पत्नी तक को खा सकता है । आइये देखते हैं पहले भारत को की कैसे नारी की स्थिति का “मैं नीर भरी दुःख की बदरी” से “नारी तुम केवल श्रद्धा हो” तक का सफर तय किया जाए । “यत्र नार्यस्तु पूज्यंते” वाली संस्कृति में आज विचार किया जा रहा है कि कैसे स्त्री की स्थिति में सुधार किया जाए यह बड़ा दुर्भाग्य पूर्ण है । सबसे पहले हमें समस्या के जड़ को जानना होगा कि कैसे याज्ञवल्क्य से शास्त्रार्थ करने वाली गार्गी, वेद मन्त्र रचने वाली लोपमुद्रा, घोषा, अपाला, मैत्रेयी आदि घरों में कैद होकर बस शोभा की वस्तु बन गईं ? उसका सबसे पहला कारण है उनका शिक्षा से दूर हो जाना । आप शिक्षित है तो दूसरे से बुरा बर्ताव कर भी सकते हैं किंतु किसी विद्वान

भीष्म वध

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भीष्म वध ==================== दुर्योधन के दुर्वचनों से आहत पितामह भीष्म आज कुरुक्षेत्र में ऐसे उतरे थे मानों रावण से दुर्वचनों से क्रुद्ध हो काल स्वयं युद्ध भूमि में उतरा हो मृत्यु का तूर्य फूँकने । उनको देख ऐसा लग रहा था कि जैसे चन्द्र चिह्न वाले गंगोथ रथ पर चढ़कर स्वयं दिनकर उतरे हों तथा उनके धवल वस्त्र, श्वेत केश ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानो सूर्य से श्वेत लपटें निकल रही हों जो आज भस्मीभूत कर देंगी धरा को । भीष्म ने गंगनाभ को हाथ में उठा फूंककर युद्ध का आह्वान किया प्रत्युत्तर में धृष्टद्युम्न ने यज्ञघोष से हुंकार भरी देखते - देखते देवदत्त, पांचजन्य, पौंड्र, हिरण्यगर्भ, अनंतविजय, सुघोष, मणिपुष्पक और विदारक आदि शंखों के स्वर एकाकार होकर मृत्यु के अभिनन्दन के लिए स्वस्तिवाचन करने लगे कुरुक्षेत्र में । आज सेनापति भीष्म ने सर्पव्यूह की रचना की थी जैसे आज वे निश्चय करके आये हों कि युद्ध उनके लिए आज समाप्त होने वाला है । युद्ध कौशल निपुण धृष्टद्युम्न ने रक्षात्मक गरुण व्यूह की रचना की भीष्म के धनुष की टंकार से समस्त दिशाएं कर्णछिन्न स्वर से भ्रमित हो उठीं , हर किसी को ऐसा लगा मानो

लक्ष्मण पर शक्ति प्रहार

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आज मेघनाद ने रावण को वचन दिया ऐसा युद्ध करूँगा की तीनों लोक और दसों दिशाओं के दिग्पाल  अचंभित रह जाएंगे । इतना कहकर वह अपने मायामय रथ पर चढ़कर लंका के उत्तर द्वार पर आ डटा ; मेघनाद गधों से जुते हुए रथ पर ऐसा लग रहा था मानो कज्जल गिरी की चोटी हाथ में धनुष लिए रथ पर सवार हो चली आ रही हो , उसका अट्टहास ऐसा प्रतीत हो रहा था मानों मंदार पर बादल टकरा रहे हों आपस में बज्रपात होने वाला है । अब दोनों सेनाएं सामने आ डटी थी मानों दो जलराशियां बन्ध तोड़कर एक दूसरे से मिल जाने और सामने वाले को अपने बहाव में शामिल कर लेने को आतुर हों । मेघनाद ने भयानक नाद करते हुए अपने धनुष पर बाण साधे वे यूँ दौड़े मानों टिड्डी के दल चल पड़े हों फसल देखकर और फसल को समूल चट कर जाने को उद्यत हों । वानर सेना भी हनुमान, अंगद और लक्ष्मण को पुकारती हुई भाग चली ऐसा लग रहा था मानो वृत्त के आतंक से देव् समूह ऋषि दधीचि को खोजने भाग चला हो । लक्ष्मण का आसरा पा वानरों को लगा जैसे बलि से हारे हुए देवताओं को उपेंद्र का आसरा मिल गया हो । रामानुज को साथ ले वानर युद्ध भूमि की तरफ चल पड़े जहां घननाद ने आतंक मचाया हुआ था । उसे देख क