भीष्म वध
भीष्म वध ====================
दुर्योधन के दुर्वचनों से आहत पितामह भीष्म आज कुरुक्षेत्र में ऐसे उतरे थे मानों रावण से दुर्वचनों से क्रुद्ध हो काल स्वयं युद्ध भूमि में उतरा हो मृत्यु का तूर्य फूँकने । उनको देख ऐसा लग रहा था कि जैसे चन्द्र चिह्न वाले गंगोथ रथ पर चढ़कर स्वयं दिनकर उतरे हों तथा उनके धवल वस्त्र, श्वेत केश ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानो सूर्य से श्वेत लपटें निकल रही हों जो आज भस्मीभूत कर देंगी धरा को ।
भीष्म ने गंगनाभ को हाथ में उठा फूंककर युद्ध का आह्वान किया प्रत्युत्तर में धृष्टद्युम्न ने यज्ञघोष से हुंकार भरी देखते - देखते देवदत्त, पांचजन्य, पौंड्र, हिरण्यगर्भ, अनंतविजय, सुघोष, मणिपुष्पक और विदारक आदि शंखों के स्वर एकाकार होकर मृत्यु के अभिनन्दन के लिए स्वस्तिवाचन करने लगे कुरुक्षेत्र में ।
आज सेनापति भीष्म ने सर्पव्यूह की रचना की थी जैसे आज वे निश्चय करके आये हों कि युद्ध उनके लिए आज समाप्त होने वाला है । युद्ध कौशल निपुण धृष्टद्युम्न ने रक्षात्मक गरुण व्यूह की रचना की
भीष्म के धनुष की टंकार से समस्त दिशाएं कर्णछिन्न स्वर से भ्रमित हो उठीं , हर किसी को ऐसा लगा मानो बज्रपात हुआ किन्तु कहाँ हुआ पता नहीं भीष्म के बाण पांडव सेना के व्यूह को तितर-बितर और रथियों को काल के गाल में यूं समाहित करने लगे जैसे अनिरुद्ध के बन्दी बनाये जाने से क्रुद्ध भगवान कृष्ण ने बाणासुर की सेना पर अपने अमर्ष का वर्षण किया हो जिसे रोकने में महादेव भी समर्थ नहीं हो सके थे ।
भीष्म का यह रूप देख आज त्रैलोक्य चकित था , युधिष्ठिर जिनका धैर्य हिमालय सा गम्भीर था वह भी विचलित दिख रहे थे उन्होंने केशव से कुछ करने की प्रार्थना की । केशव ने कहा आज भीष्म को द्रुपद सुत शिखण्डी रोकेंगे । सब अवाक थे आखिर अर्जुन के अतिरिक्त जिसका कोई एक बाण भी नहीं सह सकता उसे शिखण्डी कैसे रोकेगा ? पर केशव को पता थी तलवार और सुई की ताक़त उन्होंने शिखंडी को आगे किया और उसके पीछे अर्जुन का कपिध्वज रखा था । सभी अवरोधों को चीरते हुए जैसे भारी जलराशि के मध्य से भी छोटी सी मछली निकल जाती है वैसे ही शिखण्डी और अर्जुन पितामह के सम्मुख खड़े हुए ।
भीष्म के सम्मुख वे ऐसे प्रतीत हो रहे थे जैसे सामर्थ्य के सामने बुद्धि, बल और नीति खड़े हों । शिखण्डी को देखते ही भीष्म ने पतझड़ के आने पर जैसे वृक्ष पत्रों का त्याग कर देता है वैसे ही धनुष का परित्याग कर दिया ।
यह देखते ही अर्जुन से कृष्ण बोले पार्थ शिखण्डी से पूर्व तुम्हारे बाण पितामह के कवच के पार होने चाहिए । क्या तुम चाहोगे कि तुम्हारे पितामह एक ऐसे व्यक्ति द्वारा मारे जाएं जो अनायास ही उनसे घृणा और ईर्ष्या रखता है और उसने उसी हेतु जन्म ही लिया हो ।
अर्जुन ने विचलित मन से तूण का तूणीर से गांडीव तक की यात्रा कराई और कान तक प्रत्यंचा खींचकर पितामह पर बाण छोड़ दिये । बाण पितामह के शरीर में ऐसे समाते चले गए जैसे एक इच्छाजीवी वीर का अंतिम अलंकरण कर रहे हों । पितामह ने ढाल और तलवार उठाई अर्जुन की तरफ दौड़े किन्तु वाणों ने ऐसा सम्भव न होने दिया अब एक महावीर बाणों की शैय्या पर लेटा हुआ था । शायद जिस महावीर ने आजीवन बाणों की अदृश्य पर्यंक पर शयन किया था , यह दृश्य उसके जीवन के सत्य को सबसे अवगत करवाने का प्रतीक था । शायद ये बाणों की पर्यंक उन परिस्थितीयों के पर्यंक से कम कष्टकारी थी तभी पितामह ने अर्जुन को आशीर्वाद दिया और धन्यवाद भी ज्ञापित किया ।
हे! अष्टम वसु, हे गंगासुत तुमने वेद वृहस्पति से पढ़े, नीति शुक्र से, धनुर्वेद तुम्हें महादेव के प्रिय शिष्य परशुराम से मिला किन्तु जब तुम्हारा प्रेम मोह में परिवर्तित हो तुम्हें समाज के प्रति कर्तव्यों से विमुख कर एक परिवार मात्र के प्रति कर्तव्यों में आसन्न कर दिया तभी उसने तुम्हारे लिए चयन कर दिया था, इन कष्टों का ।
तुम प्रतीक हो वीरता के, समर्पण के, जिजीविषा के किन्तु मोह ने तुमसे महानायक होने का अधिकार छीनकर कृष्ण और अर्जुन को थमा दिया । किन्तु तुम धन्य थे, धन्य थे, धन्य थे ।
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