ध्यान और सन्यास तथा जीवन

मुझसे प्रश्न किया गया था; मैं ध्यान के माध्यम से जीवन से विरक्त हो शांति प्राप्त करना चाहता हूँ क्या ये सही होगा ?

उत्तर - सन्यास ले लेना या ध्यान की तरफ चले जाना लोगों को लगता है कि शन्ति प्राप्त हो जाएगी संसार से छूटकारा मिल जाएगा या फिर ध्यान या सन्यास कोई जादू है जो आपकी मानस इच्छाओं को समाप्त कर तुंरत आपको ऐसी शक्ति से जोड़ देगा जिसके पास सभी समस्याओं का हल होगा ।

किन्तु इसका उत्तर पूर्णतया नकारात्मक है । नहीं हर व्यक्ति सन्यास या ध्यान से शन्ति नहीं प्राप्त कर सकता है । फिर तर्क दिए जाएंगे कि बुद्ध, शंकराचार्य, स्वामी विवेकानंद आदि के जीवन का । वास्तव में हम इनके जीवन को ठीक से नहीं पढ़ते हैं हम उनके सन्यास की तरफ उन्मुख होने के समय की मनोदशा को ही नहीं समझ पाते हैं ।

मैं वेदों, शास्त्रों या क्लिष्ट संस्कृत ग्रंथों की तरफ नहीं जाना चाहता हूँ । आपको तुलसी बाबा द्वारा रचित एक चौपाई जो कि रामचरितमानस के उत्तकाण्ड का हिस्सा है सुनाता हूँ -

"नारि मुई गृह सम्पति नाशी । मूँड़ मुड़ाय भये सन्यासी ।।"

वास्तव में यह मात्र व्यंग नहीं है अपितु यह नकारात्मक रूप से सन्यासी की अर्हता बताता है । इसमें व्यंग करते हुए कहा गया है कि कलयुग में वे लोग भी सन्यासी बनेंगे जो अपनी इच्छाओं की संतृप्ति ( पूर्ति शब्द उपयुक्त नहीं होगा यहां) में असफल रहते हैं इसका अर्थ है सन्यास लेने से पूर्व आप में पहली अर्हता होनी चाहिए कि आपकी इच्छाओं की संतृप्ति हो न कि समन या दमन ।

जब इच्छाएं संतृप्त होंगी तो वे पुनः नहीं उठेंगी अन्यथा वे आपको सन्यासी जीवन में भी परेशान करती रहेंगी और आप अनर्थ की तरफ जाएंगे । आज ज्यादातर ऐसे लोग विराग की तरफ जाते दिख रहे हैं, जिनमें स्नेह की भूख है उन्हें किन्हीं कारणों से पारिवारिक या सामाजिक स्नेह उस स्तर का नहीं मिला जिसकी अपेक्षा थी । फलतः उन्हें लगता है कि ध्यान से वे अपने मस्तिष्क को शान्त कर लेंगे उनके अंदर का क्रोध समाप्त हो जाएगा ।

किन्तु उन्हें शायद ध्यान की वास्तविकता नहीं पता कि ध्यान तभी लगाया जा सकता है जब मस्तिष्क शांत हो । इसके लिए उन्हें कर्म मार्ग का ध्यान करना चाहिए अपनी इस इच्छा की संतृप्ति करनी चाहिए । स्नेह की पूर्ति स्नेह प्राप्त करके नहीं अपितु प्रदान करके होती है । अर्थात आपको अपना ध्यान स्नेह पर केंद्रित करना है । आपको स्वयं में करुणा, ममता, प्रेम को उद्दीपित करना चाहिए; फलतः आपकी इस इच्छा की संतृप्ति होगी । इसके साथ साथ जो भी मानस रोग हैं उन्हें पहचाने उन पर ध्यान केंद्रित करें । ध्यान रहे बुखार में कैंसर की गोली खाने पर आदमी कमजोर हो जाता है ।

बुद्ध, महावीर, स्वामी विवेकानंद, शंकराचार्य, मीरा आदि हम जिनका भी नाम लेते हैं आप इनके जीवन को ठीक से देखें तो इनके जीवन में किसी चीज की कमी नहीं थी इनकी इच्छाएं संतृप्त थी, बस मीरा की स्नेह की इच्छा असंतृप्त रह गयी थी तो उन्होंने उसे समस्त प्राणियों से स्नेह करके संतृप्त किया ।

वास्तव में जब आपकी इच्छाएं संतृप्त हो जाती हैं तो आप स्वतः ही कहीं भी रहें सन्यासी और ध्यान में ही होते हैं । इसके लिए आपको किसी आसन या मुद्रा की आवश्यक्ता नहीं होती है । भगवान श्रीकृष्ण ने भी गीता में बस अपने कर्मों को करते हुए कर्ता होने के मान से मुक्ति को ही अठारहवें अध्याय में सन्यास कहा है ।

आप सभी को कर्तव्य दिए गए हैं समाज द्वारा आपको किसी न किसी से जोड़ा गया है , आपके पुरजन, परिजन, मित्र, कुलत्र, प्रिय, प्रेयसी सभी के प्रति आपके कर्तव्य अभिधारित किये गए हैं इन्हीं कर्तव्यों को धर्म कहा गया है । अक्सर सन्यास या ध्यान के चक्कर में हम इन कर्तव्यों के प्रति अतिचार करते हैं तथा धर्म से विमुख हो जाना ही अधर्म है जिसे कि पाप कहा गया है । कहीं न कहीं अनजाने में हम असंतृप्त इच्छाओं के साथ जो ध्यान और सन्यास की बात करते हैं वहां पर यह तत्व समाहित हो जाता है । जो कर्तव्य आपको प्रदत्त हैं उन्हें आप पूर्ण करते रहिए आप स्वतः स्वयं को ध्यान मुद्रा में बैठे योगी से अधिक संतृप्त तथा जंगल में भटक रहे सन्यासी से अधिक दीप्तमान प्रतीत होंगें ।

@Himamshu U PN Singh

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