लक्ष्मी का अवतरण
लक्ष्मी का अवतरण ============
समुद्र मंथन से उत्पन्न होने वाले चौदह रत्नों में से लक्ष्मी एक हैं उन्होंने सृष्टि के पालनकर्ता भगवान विष्णु का वरण किया ।
समुद्र मंथन की कथा में आठवें रत्न के रूप में लक्ष्मी अवतरित हुईं । समुद्र मंथन के लिए क्षीर सागर को चुना गया और मन्दराचल पर्वत की मथनी तथा वासुकी नाग को डोरी बनाया गया तथा इंद्र की अगुवाई में देवताओं तथा राजा बलि की अगुवाई में दैत्यों ने भाग लिया और कच्छप (कूर्म) रूप में भगवान विष्णु ने मन्दराचल को धारण किया ।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण चन्द्र जी कहते हैं कि मैं सागरों में क्षीर सागर हूँ, पर्वतों में मन्दराचल हूँ, नागों में वसुकी हूँ, देवताओ में इंद्र हूँ तथा दैत्यों में महाराज बलि हूँ । अर्थात लक्ष्मी ने उसी का वरण किया जो कि जगत पालन का कार्य करता है तथा स्वयं के अन्तस् में स्वयं को साधन बनाकर स्वयं का मंथन किया ।
वास्तव में लक्ष्मी से तात्पर्य हमें धन अथवा एक देवी मात्र से ही नहीं लगाना चाहिए अपितु इसके पीछे अन्य घटनाओं की तरह निहित दर्शन को जानना चाहिए । क्षीर सागर एक ऐसा समुद्र है जिसका आदि अंत का पता लगाना मनुष्य के लिए वैसे ही दुष्कर है जैसे को मानव के चित्त (मन) का अर्थात क्षीर सागर मनुष्य का चित्त है जिसे मथने के लिए विशालकाय पर्वत मन्दराचल रूपी कठोर परिश्रम की मथनी बनाकर । वसुकी जो कि भगवान शिव के गले की शोभा बढ़ाते हैं शिव अर्थात लोक कल्याण को आधार (रस्सी ) बनाकर अपने सद्गुण (देवताओ) तथा राजस गुणों ( दैत्यों) द्वारा चित्त को मथते हैं । जैसा कि आप लोग जानते हैं कि सद्गुण में ज्ञान और सद्भाव प्रधान होता है और राजस गुण में श्रम प्रधान होता है । यानी आपको मथने के लिए ज्ञान, सद्भाव और श्रम का मेल करवाना होगा । जब इसे मथेंगे तो सबसे पहले कालकूट विष की तरह आपकी दुष्प्रवृत्तियाँ बाहर आएंगी जैसे मद, मोह, क्रोध , लोभ आदि किन्तु जब आपके अंदर मौजूद शिव (लोककल्याणकारी भावना) उनका समन कर देगी और आप अपने चित्त के मंथन की क्रिया में पुनः लगे रहते हैं तो उज्जैश्रवा, ऐरावत ,कौस्तुभमणि आदि अनेक रत्न प्राप्त होंगे एक एक करके और आप इसे यथायोग्य जनकल्याण में लगाते जाएंगे फिर आपके सम्मुख आपका ध्येय प्रकट होगा अर्थता लक्ष्मी प्रकट होंगी । वास्तव में लक्ष्मी के अनेक रूप है तथा प्रत्येक रूप में वो आपके इच्छाओं जैसी हो जाती है जैसे धन, धान्य, पुत्र, परिवार, राज आदि । किन्तु आप चाहकर भी स्वयं निवेदन से अथवा जबरदस्ती उन्हें प्राप्त नहीं कर सकते वे स्वयं ही आपका वरण करती हैं किंतु आपको उसके लिए लक्ष्मीकांत जैसे गुण लाने पड़ेंगे अपने अंदर जो कि सम्पूर्ण संसार के पालनकर्ता हैं इतने धीर-गम्भीर की एक ऋषि ( भृगु) के लात मारने पर भी क्रोध न करके अपितु उनके पैर को सहलाते हुए उसका क्षेम पूछते हैं । जो सत्य और धर्म की रक्षा के लिए देव, दनुज, नर, नाग किसी का भी समन करने को तैयार रहते हैं तथा इसके लिए सूकर (वाराह ) का भी रूप धारण करने में कोई गुरेज नहीं करते । ऐसा हो जाने पर लक्ष्मी स्वयं वरण करती है आपका ।
आगे यदि लक्ष्मी प्राप्ति के उपरांत आपका मंथन रुक जाता है तो वह पुनः विलोपित हो जाएंगी क्योंकि वो चपल और चंचल हैं उसके लिए मंथन करते रहना होता है और एक दिन आपको अमृत प्राप्त होता है और आप अमरत्व को प्राप्त करते हैं ।
समुद्र मंथन से उत्पन्न होने वाले चौदह रत्नों में से लक्ष्मी एक हैं उन्होंने सृष्टि के पालनकर्ता भगवान विष्णु का वरण किया ।
समुद्र मंथन की कथा में आठवें रत्न के रूप में लक्ष्मी अवतरित हुईं । समुद्र मंथन के लिए क्षीर सागर को चुना गया और मन्दराचल पर्वत की मथनी तथा वासुकी नाग को डोरी बनाया गया तथा इंद्र की अगुवाई में देवताओं तथा राजा बलि की अगुवाई में दैत्यों ने भाग लिया और कच्छप (कूर्म) रूप में भगवान विष्णु ने मन्दराचल को धारण किया ।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण चन्द्र जी कहते हैं कि मैं सागरों में क्षीर सागर हूँ, पर्वतों में मन्दराचल हूँ, नागों में वसुकी हूँ, देवताओ में इंद्र हूँ तथा दैत्यों में महाराज बलि हूँ । अर्थात लक्ष्मी ने उसी का वरण किया जो कि जगत पालन का कार्य करता है तथा स्वयं के अन्तस् में स्वयं को साधन बनाकर स्वयं का मंथन किया ।
वास्तव में लक्ष्मी से तात्पर्य हमें धन अथवा एक देवी मात्र से ही नहीं लगाना चाहिए अपितु इसके पीछे अन्य घटनाओं की तरह निहित दर्शन को जानना चाहिए । क्षीर सागर एक ऐसा समुद्र है जिसका आदि अंत का पता लगाना मनुष्य के लिए वैसे ही दुष्कर है जैसे को मानव के चित्त (मन) का अर्थात क्षीर सागर मनुष्य का चित्त है जिसे मथने के लिए विशालकाय पर्वत मन्दराचल रूपी कठोर परिश्रम की मथनी बनाकर । वसुकी जो कि भगवान शिव के गले की शोभा बढ़ाते हैं शिव अर्थात लोक कल्याण को आधार (रस्सी ) बनाकर अपने सद्गुण (देवताओ) तथा राजस गुणों ( दैत्यों) द्वारा चित्त को मथते हैं । जैसा कि आप लोग जानते हैं कि सद्गुण में ज्ञान और सद्भाव प्रधान होता है और राजस गुण में श्रम प्रधान होता है । यानी आपको मथने के लिए ज्ञान, सद्भाव और श्रम का मेल करवाना होगा । जब इसे मथेंगे तो सबसे पहले कालकूट विष की तरह आपकी दुष्प्रवृत्तियाँ बाहर आएंगी जैसे मद, मोह, क्रोध , लोभ आदि किन्तु जब आपके अंदर मौजूद शिव (लोककल्याणकारी भावना) उनका समन कर देगी और आप अपने चित्त के मंथन की क्रिया में पुनः लगे रहते हैं तो उज्जैश्रवा, ऐरावत ,कौस्तुभमणि आदि अनेक रत्न प्राप्त होंगे एक एक करके और आप इसे यथायोग्य जनकल्याण में लगाते जाएंगे फिर आपके सम्मुख आपका ध्येय प्रकट होगा अर्थता लक्ष्मी प्रकट होंगी । वास्तव में लक्ष्मी के अनेक रूप है तथा प्रत्येक रूप में वो आपके इच्छाओं जैसी हो जाती है जैसे धन, धान्य, पुत्र, परिवार, राज आदि । किन्तु आप चाहकर भी स्वयं निवेदन से अथवा जबरदस्ती उन्हें प्राप्त नहीं कर सकते वे स्वयं ही आपका वरण करती हैं किंतु आपको उसके लिए लक्ष्मीकांत जैसे गुण लाने पड़ेंगे अपने अंदर जो कि सम्पूर्ण संसार के पालनकर्ता हैं इतने धीर-गम्भीर की एक ऋषि ( भृगु) के लात मारने पर भी क्रोध न करके अपितु उनके पैर को सहलाते हुए उसका क्षेम पूछते हैं । जो सत्य और धर्म की रक्षा के लिए देव, दनुज, नर, नाग किसी का भी समन करने को तैयार रहते हैं तथा इसके लिए सूकर (वाराह ) का भी रूप धारण करने में कोई गुरेज नहीं करते । ऐसा हो जाने पर लक्ष्मी स्वयं वरण करती है आपका ।
आगे यदि लक्ष्मी प्राप्ति के उपरांत आपका मंथन रुक जाता है तो वह पुनः विलोपित हो जाएंगी क्योंकि वो चपल और चंचल हैं उसके लिए मंथन करते रहना होता है और एक दिन आपको अमृत प्राप्त होता है और आप अमरत्व को प्राप्त करते हैं ।
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