टूटे चरखे : लड़ाई आर्थिक आजादी की ।

टूटे चरखे : लड़ाई आर्थिक आजादी की ==========

15 अगस्त 1947 को जब सूर्य उगा तो आजादी की पहली किरण थी भारत में सबने कहा हम आज़ाद हुए । हमारी अंतरिम सरकार के प्रथम प्रधनमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने अपना ऐतिहासिक सम्बोधन दिया राष्ट्र के नाम । ये लड़ाई इतनी आसान नहीं थी कि हम एक व्यक्ति को राष्ट्रनायक घोषित कर दें कि इन्ही ने आज़ादी दिलवाई न ही हम किसी एक पंथ को चाहे वो नरमपंथी हो या क्रांतिकारी इस आज़ादी का श्रेय दे सकते हैं । ये भारत की साझा लड़ाई थी और राष्ट्र के रामसेतु में पहाड़ रखने वाले हनुमान जी हो अथवा बालू का कण डालने वाली गिलहरी हो सब के सब हमारे लिए वंदनीय है वे हमसे श्रेष्ठ हैं उनका बलिदान हमसे बड़ा है राष्ट्र के लिए हमारे पास कोई अधिकार नहीं है किसी भी महामानव के चाहे सावरकर हो या गांधी अथवा आजाद या भगतसिंह अथवा नेता जी उनके स्वतंत्रता आंदोलन के कार्यो का मूल्यांकन करें ।

हमने कई तरह की स्वतंत्रता  की लड़ाई लड़ी एक साथ । मसलन-

1- राजनीतिक स्वतंत्रता ,

2- सामाजिक स्वतंत्रता, तथा

3- आर्थिक स्वतंत्रता ।

हमने बेशक राजनीतिक स्वतंत्रता किस रीति से पाई क्रांतिकारी या नरमपंथी वो विवाद का विषय है उसपर राजनेता अपनी राजनीति के अनुसार विवाद खड़े करते रहे हैं और रहेंगे ।

पर आज बात करते हैं आर्थिक आजादी के एक सिपाही की जो कि स्वतंत्रता की लड़ाई में स्वदेशी और आर्थिक स्वतंत्रता का एक निशान बन गया काहें ब्रांड एम्बेसडर था।  बात करते हैं "चरखे" की । आखिर चरखा ही क्यों बना आर्थिक आजादी का बॉन्ड एम्बेसेडर हल या कोई अन्य यंत्र क्यों नहीं ? इसके लिए हमें जानना चाहिए आखिर चरखा बनता कैसे है और काम कैसे करता है इसका कच्चा माल कहाँ से आता है और तैयार माल का क्या होता है ।

चरखा एक लकड़ी का ढांचा होता है जिसमें एक या दो पहिये होते हैं जो रस्सी द्वारा एक तकली से सम्बद्ध रहते हैं । इसमें पूरे चरखे का निर्माण गांव का बढई कर देता है गांव का लुहार इसकी तकली बना देता है , किसान द्वारा पैदा की हुई कपास से नीविकार सूत बनाता है और उससे कपड़े सीविकर सिलता है । अर्थात एक चरखे से 5 लोगों के रोजगार जुड़े हुए थे प्रत्यक्ष रूप से आगे व्यापारी आदि की बात अलग है । और यह सरलतम यंत्रों में से एक है।

हम जिस संस्कृति में पैदा हुए थे यहां पर एक अवधारणा पाई जाती है स्वावलम्बी ग्राम की जिसमें गांव के शिक्षक , रक्षक किसान, शिल्पी आदि एक दूसरे से जुड़े रहते थे और ये अपने आवश्यकता की वस्तुएं विनिमय द्वारा एक दूसरे की जरूरतें पूरी करने के बाद ही व्यापारी को बेंचते थे जो कि इन्हें शहर के लोगों को तथा विदेशियों को बेंचते थे अर्थात शुद्ध निर्यात होता था और व्यापार घाटा हमेशा नकारात्मक होता था । यही कारण था कि भारत सोने की चिड़िया बन गया था । किसी ने कहा है कि "रोम का सारा सोना व्यापार के लिए भारत आ जाता था और रोमवासी पाते थे बस मसाले और कपड़े ।" पूर्वमध्यकाल में रोम के शासक को इस कारण भारतीय व्यापार पर प्रतिबंध भी लगाना पड़ा था ।

रूस के जार ने कहा था "भारत के व्यापार पर जिसका नियंत्रण होगा वही दुनिया पर शासन करेगा।"

 जब भारत ऐसा था तो आज ये हाल कैसे हो गया कि हमारी गिनती विकासशील राष्ट्रों में है हमारी क्रेडिट रेटिंग B+ है ।

 क्या सच में हम एक कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था थे ? क्या कृषि ही आधार था हमारी आर्थिक नीतियों का ? ये विवाद का विषय है इसे हम तथ्यों पर परखते हैं । यूं तो आचार्य चाणक्य ने कृषि को सर्वश्रेष्ठ पेशा कहा है तुलसीदास जी ने भी कृषि के बारे में बात करते हुए लिखा है -

उत्तम खेती मद्धम बान निकृष्ट चाकरी भीख निदान ।

अर्थात कृषि श्रेष्ठतम पेशा है , व्यापार को मध्यम दर्जा दिया गया है किसी की नौकरी करना निकृष्ट माना गया है और भीख मांगना केवल तभी विधिसम्मत है जब आप कुछ न कर सकते हों जीवन निर्वाह के लिए ।

कर प्रणाली में कृषि पर लगने वाले कर की दर 1/6 थी अर्थात 16.67% लगभग जबकि व्यापार कर की दर मात्र 1/10 अर्थात 10% थी । फिर भी किसान भी खुश था और व्यापारी भी । क्योंकि भारत में बस 30% लोग ही कृषि से जुड़े हुए थे जिससे कारण कृषि में प्रतिव्यक्ति उत्पादकता अधिक थी बाकी के 70% लोग व्यापार तथा सेवा क्षेत्र से जुड़े हुए थे । आज का दौर देखिए हमारा किसान परेशान है जबकि उसे न तो अपने उत्पादन पर कर देना पड़ता है बल्कि उसे सब्सिडी भी मिलती है बावजूद इसके वो कर्ज में डूबा है और उसे आत्महत्या करनी पड़ रही है । और उस दौर में जब उत्पादन कम था तब किसान 16.67% कर देकर भी खुश था उसका भी कारण था वही स्वावलम्बी ग्राम व्यवस्था और बेहतर मूल्य और व्यापार प्रणाली भी ।

हर तरह के व्यापारियों की अलग अलग श्रेढियाँ (गिल्ड) बनी हुई थी ये गिल्डस बैंको का काम भी करती थी और ये नियमों का निर्धारण भी करती थी बाजारों के तथा शासन बाजार के मामलों मेम हस्तक्षेप नहीं करता था सिवाय मूल नियमों को बनाने और अपराधों के लिए दण्डित करने के । मुझे नहीं लगता कि जिस देश में मात्र 30% लोग कृषि करते हो और बाकी के 70% लोग  व्यापार अथवा शिल्प से जुड़े हों उसे कृषि प्रधान देश की संज्ञा दी जाए ।

पर बड़ा सवाल ये उठता है कि आखिर हम व्यापारिक राष्ट्र से कृषि प्रधान तक आये कैसे ? वास्तव में चाहे अरबी हो या तुर्की, अफगान हो अथवा मुग़ल उन्होंने कर भले ही बढ़ाये और 33-50% तक वसूल पर उन्होंने ये व्यवस्था जो स्वावलम्बी ग्राम की थी और व्यापारिक रीतियाँ इन्हें नहीं बदला नहीं तोड़ा किन्तु जब भारत में यूरोपियन आये और उन्होंने व्यापार शुरू किया तो उन्हें कच्चा माल प्राप्त करने में तथा तैयार माल बेंचने में सबसे बड़ी बाधा ये स्वावलम्बी ग्राम तथा ये व्यापारिक श्रेढियाँ थी सबसे पहले इन्होंने उन्हें तोड़ना शुरू किया और आघात किया यहां के शिल्पकारों पर जो कि इस व्यवस्था की सबसे सशक्त कड़ी थे उन्होंने ही बीच में सबको बांध रखा था गांवों से शहरों को जब उनके करखे और चरखे टूटे तो एक बड़ी बेरोजगारी फैली भारत में उन 70% लोगों का समायोजन कहां हो इस समस्या का समाधान किया कृषि ने वे शिल्पी और कुछ हद तक व्यापारी वर्ग भी जो इनसे बेरोजगार हुआ लगभग  70-80% तक वो भी खेती में आ गया बतौर कृषि मजदूर अथवा छोटे किसान जिनके प्रकारों की बात करूं तो लगभग "14 प्रकार"के कृषि जोतदार बने अलग से उनका वर्णन मैं उचित नहीं समझता हूँ । इस प्रकार एक व्यापार आधारित अर्थव्यवस्था जो कि यूरोप जो सम्पूर्ण एशिया और यूरोप सहित दुनिया लगभग आधे हिस्से के व्यापार पर अकेले अधिकार रखती थी एक कृषि आधारित अर्थव्यवस्था बन गयी । और प्रारम्भ हुआ उस सोने की चिड़िया का पतन ।

अमेरिका में 1929 - 1932 तक एक भयंकर आर्थिक मंदी आई अभूतपूर्व थी इसमें लगभग 1 करोड़ 20 लाख लोगों की नौकरी अकेले अमेरिका में गयी यूरोप के देशों में मसलन इंग्लैंड आदि में पूंजीवादी अर्थव्यवस्था मंदी का शिकार होती हुई देखी गयी इसके विपरीत यह समय सोवियत संघ की अर्थव्यवस्था के लिए स्वर्ण काल रहा । पूरी दुनिया में यह माना जाने लगा कि पूँजीवादी अर्थव्यवस्था फैल हो गयी और साम्यवादी अर्थव्यवस्था ही विश्व का भविष्य है । इस युग के तीसरी दुनिया के ज्यादातर देशों के युवा नेता साम्यवाद से प्रभावित हुए अब इससे भारत अछूता कैसे रह सकता था । भारत के डॉ एम एन रॉय ( मानवेन्द्र नाथ रॉय) लेनिन के नजदीकी रहे और साम्यवादी पार्टी के पोलित ब्यूरो के सदस्य भी रहे । साथ साथ अन्य युवा नेता यथा नेता जी सुभाषचंद्र बोस हों अथवा पंडित जवाहर लाल नेहरू ये सब साम्यवाद से प्रभावित रहे और भारत के विकास हेतु उन्हीं नीतियों का अनुशरण करने की वकालत करते रहें । दूसरी तरफ गांधी जी थे जिन्होंने भारतीय स्वावलम्बी ग्राम तथा पंचायती राज्य एवं कुटीर उद्योगों की वकालत करते थे । उनका कहना था कि मैं मशीनों का तब तक विरोध नहीं करता जब तक वे सभी भारतीयों को रोजगार देने में सक्षम हैं यदि वे लोगों का रोजगार छीनती है तो मैं उनका विरोधी हूँ । पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी के विचार भी ठीक ऐसे ही थे अपनी पुस्तक "देशज संहिता " में पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी ने इसी व्यवस्था का उल्लेख किया है जो कि अब विलुप्तप्राय है उसके उद्धरण ही मिल पाते हैं कहीं कहीं पुस्तको में इसे उन्होंने 1920 में लिखा था । और एक तीसरा तबका था जो कि समाजवादी थे किंतु कांग्रेस से अलग इनका अस्तित्व था आचार्य नरेन्द्रदेव और डॉ राममनोहर लोहिया जी का । 30 जनवरी 1948 को गांधी जी की आकस्मिक मृत्यु ने पंडित नेहरू को तानाशाह बना दिया भारत का अब तो भारत नेहरू और नेहरू ही भारत थे । उन्होंने वही सोवियत यूनियन की नीति को अपनाया पंचवर्षीय योजना का और द्वितीय पंचवर्षीय योजना में "महाबलोनिस मॉडल" के आधार पर भारी उद्योगों की स्थापना की जिनका स्वामित्व सार्वजनिक क्षेत्र के हाथ में था । किंतु नेहरू जी यह भूल गए कि रूस में मुट्ठी भर लोग हैं और असीमित भूमि जो जिसपर बस उद्योग लगा सकते हैं खेती नहीं कर सकते परन्तु  भारत उसके ठीक उल्टा था । भारत में जनसख्या ज्यादा थी और सीमित भूमि थी और संसाधन भी । सबसे प्राथमिक आवश्यकता थी भारत की सभी लोगों को रोजगार दिया जाना ताकि वे एक गरिमापूर्ण जीवन जीने के लायक बन सके उसके लिए आवश्यकता थी कौशल विकास और स्वरोजगार को दिशा देने की पर "नेहरू जी ने चरखे के बचे खुचे हिस्से को भी तोड़ दिया" और उस पर स्थापित किया भारी उद्योग जो चंद लोगोंको ही रोजगार दे सकता था और बाकी के देश को सब्सिडी और मुफ्त का अनाज देकर आलसी और निकम्मा बना दिया गया । और भूमि सुधार के लिए अगस्त 1946 में गठित की गई पंडित गोविन्दवल्लभ पंत की अध्यक्षता में बनी समिति ने तो और गजब कर दिया किसानों की जमीन छीनकर उन्हें मजदूरों में बांट दिया गया और जोत अत्यंत छोटी और अलाभकारी हो गयी ।अर्थात जिन्हें रोजगार और स्वावलम्बन देना था उन्हें किसानों के हिस्से की जमीन थमा दी गयी । और जमींदारों के पास जो "सीर जमीन" थी उसे सरकारें नहीं ले पाई जिन्हें गरीबों में बांटना आवश्यक था ।

द्वितीय पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत स्थापित किये गए ज्यादातर उद्योग घाटे का सौदा साबित हो रहे थे । घाटे के कारण मिल्स और फैक्टरियां बन्द हो रही थी । उसके लिए श्रीमती इंदिरा नेहरू गांधी के शासन काल में एक समिति का गठन हुआ जिसने ज्यादातर उद्योगों से सरकार के एकाधिकर को समाप्त करने की सिफारिश की और घाटे में चल रही इकाइयों के विनिवेश की जिसपर क्रियान्वयन राजीव गांधी के कार्यकाल में प्रारम्भ हुआ किन्तु पी वी नरसिम्हाराव के शासन काल को उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण ( LPG) के युग के रूप में जाना जाता है । पर फिर से वही सवाल खड़ा होता है क्या इससे उस दुर्बल तबके को कुछ मिला जिसके चरखे और करघे तोड़ दिए गए पहले अंग्रेजों द्वारा फिर नेहरू की औद्योगिकरण की नीति द्वारा वैसे नेहरू जी ने 1954 में खादी ग्रामोद्योग परिषद की स्थापना कर दी थी खुद को गांधीवादी बनाने के लिए पर उसने कितना कार्य किया वो हर किसी को पता है ।

एलपीजी के बाद भारत की विकासदर तो तेजी से बढ़ी कोई दो राय नहीं किन्तु बेरोजगारी उस दर से नहीं घटी अमीर और अमीर होता गया और गरीब वहीं अटका रहा सब्सिडी वाले अनाज पर ही ।

भारत में रोजगार का अर्थ नौकरी समझा जाने लगा आज के दौर में भी स्वरोजगारी ( Entrepreneur) को महत्व कम दिया जाता है ।

मई 2014 में मोदी जी के नेतृत्व में NDA की सरकार बनी लोगोंने एक नई आशा के साथ व्यवस्था परिवर्तन हेतु इस बार वोटिंग की थी । जो मेरा ज्ञान कहता है भारत में यह पहली सरकार बनी जो विशुद्ध गांधीवादी कहें अथवा प्राचीन भारत से सबक लेने वाली सरकार बनी इस सरकार हर उस नीति को लागू किया जो कि गांधीवादी अर्थव्यवस्था का सपना था स्किल इंडिया हो या फिर स्टार्ट अप इंडिया हो अथवा मेक इन इंडिया । छोटे उद्यमियों और नवोन्मेषी व्यक्तियों की सहायता हेतु मुद्रा योजना हो अथवा शिल्पकारों के कल्याण हेतु क्लस्टरों का गठन जिसे हम प्राचीन भारत में गिल्डस कहते थे । भारत में स्वावलम्बन को जमीनी स्तर पर उतारने का प्रयास किया जा रहा है।  रोजगार का अर्थ नौकरी से स्वावलम्बन की तरफ फिर से विस्थापित किया जा रहा है। प्रयास किया जा रहा है कि फिर से लोगों को बताया जाए कि "निकृष्ट चाकरी" हमारी सभ्यता मानती है ।

हम बड़ी फैक्टरियों से लाख चीजे पैदा कर लें पर जब दुर्बल वर्ग के पास रोजगार नहीं होगा वो चीजो को खरीद नही सकेंगे उन्हें भोजन, कपड़ा और आवास नहीं मिलेगा तो बेकार होगा सारा प्रयास । इसे पढ़कर लोगों को लग सकता है कि मैं बड़ी इंडस्ट्रीज का विरोधी हूँ पर मैं ऐसा नहीं सोचता पर मेरा मानना है जब "भारत सशक्त होगा तो समृद्ध होगा" और जरूरी नहीं है कि समृद्ध भारत सशक्त भी हो । इंडस्ट्रीज की आवश्यकता है हमें किन्तु जनता की बेरोजगारी की कीमत पर नहीं । बेरोजगारी अनेक प्रकार के अपराधों और भ्रष्टाचार का कारण भी है । इसलिए आवश्यक है कि सबको रोजगार मिले और उन टूटे हुए चरखों को जोड़कर हम फिर से भारत की आर्थिक आजादी लाएं और भारत की सोने की चिड़िया बनाने का प्रयास करें एक "आदर्श भारत" ।

जय भारत ,जय भारती मित्रों । 🙏🙏

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